समाज जागरण संवाददाता:- जर्नलिस्ट वेद प्रकाश पालीगंज अनुमंडल

गुरुकुल शब्द का अर्थ ही होता है गुरु के कुल अर्थात गुरुकुल में गुरुमाता, गुरुभाई व गुरुबहनो का वास होना। जहां गुरु अपने शिष्यों को अपने पुत्र व पुत्री समान अपने ही कुल का सदस्य मानकर उचित परवरिश करते हुए विद्यादान देने तक की सभी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते थे। बच्चे एक बार गुरुकुल में प्रवेश करते थे तो अपनी शिक्षा पूर्ण कर गुरु को गुरुदक्षिणा देने के बाद ही घर आते थे। काफी लंबे समय तक गुरु के साथ रहने के कारण शिष्यों के सम्बंध गुरु के साथ अटूट होती थी। गुरु के मन मे शिष्यों के प्रति काफी प्रेम होती थी तो वही शिष्यों के मन मे गुरु के लिए काफी सम्मान होती थी। गुरु का स्थान शिष्यों के लिए सर्वोपरि होती थी। उसके बाद गुरुकुल बदलकर पाठशाला का रूप धारण किया। पाठशाला का अर्थ ही होता है पाठों का घर अर्थात जिन स्थानों, संस्थानों या घरों में पाठ पढ़ाया जाता हो।
गुरुकुल तथा पाठशाला में फर्क यह हुआ कि गुरुकुल में प्रवेश पाने के बाद बच्चे ज्ञान अर्जित कर परिपक्व होने के बाद जिम्मेदार ब्यक्ति का रूप धारण कर घर लौटते थे। लेकिन पाठशाला में प्रवेश पाने के बाद भी बच्चों का सम्बंध अपने सगे सम्बन्धियो व घर से जुड़ा रहा। यहां तक कि बच्चे केवल ज्ञान प्राप्त करने ही पाठशाला जाते थे। छुट्टी होने पर पुनः बच्चे अपने घर माता पिता के पास लौट आते थे। इस कारण गुरु शिष्य की सम्बन्ध धीरे धीरे कमजोर पड़ती गयी। फिर भी गुरु अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए बच्चों को विद्यादान करते रहे। इसके बदले जो बच्चों या उनके माता पिता की ओर से दिनचर्या के लिए गुरुजी को मिल जाता था उसी में वे सन्तुष्ट रहते थे। क्योकि एक ज्ञानी व्यक्ति के लिए यह कथन सत्य है कि “सन्तोषम परम् सुखम।” अर्थात संतोष धारण करनेवाला ही सबसे बड़ा सुख पाता है। उन ज्ञानी गुरुओं को कभी किसी से कोई शिकायत नही होती थी। कुछ हद तक बच्चों तथा उनके माता पिता के मन मे गुरु के प्रति काफी सम्मान होती थी। जिनके दरवाजे पर गुरु का चरण पहुंचता था वे अपने आपको भाग्यवान तथा धन्य समझते थे तथा गुरु की चरणों की धुल अपने माथे पर सजाते थे। वे सभी गुरु की महिमा का गुणगान तथा बखान करते थे। इसी को देखकर कहा गया था कि ” गुरु गोविंद दोनो खड़े काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपने जो गोविंद दियो बताए।” अर्थात मानव जीवन मे गुरु का स्थान भगवान से भी आगे है।
यदि गुरु नही होते तो कोई भगवान के बारे में कैसे जानकारियां प्राप्त करता या भगवान को पहचान पाता। लेकिन जबसे पाठषाला को विद्या का घर समझकर विद्यालय किया गया तब से विद्यालय धीरे धीरे व्यवसाय के रूप में परिवर्तित होने लगी। विद्यालय विद्या दान का केंद्र न रहकर धन अर्जित करने का केंद्र बन गयी। जहां गुरु के स्थान पर अस्थाई रूप से शिक्षक रहने लगे तो बच्चों के स्थान पर छात्र व छात्राएं। शिक्षक व छात्र छात्राएं दोनो एक निश्चित समय पर विद्यालय आने लगे तथा निश्चित समय पर जाने लगे। गुरु शिष्य की परंपरा समाप्त होने लगी। अब वही विद्या शब्द शिक्षा में बदल गयी लेकिन विद्यालय के स्थान पर शिक्षालय नही हुई। बल्कि विद्यालय के स्थान पर विदेशी शब्द स्कूल अपनी स्थान बना ली जो गुरु शिष्य की परंपरा को नेस्तनाबूद करते हुए पूर्ण रूप से व्यवसाय का रूप धारण कर लिया। यह स्कूल भी दो तरह के बन गया एक निजी तो दूसरा सरकारी। सरकारी स्कूलों के 90 प्रतिशत शिक्षकों को मतलब छात्रों की शिक्षा, विकास तथा उज्ज्वल भविष्य से न रहकर अपनी हाजरी तथा तनख्वाह से रह गयी है। जिसके कारण वे शिक्षक सम्मान पाने के हकदार होते हुए भी मात्र तिरस्कार के पात्र बनकर रह गए है। क्योकि वे शिक्षक अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर छात्रों के मन मे अपना स्थान निर्धारित करने में असफल दिख रहे है।
वही निजी स्कूलों का क्या कहना जितनी बड़ी नामचिन स्कूल उतनी बड़ी ब्यवसाय। जहां वास्तविक विद्या मिले या न मिले लेकिन महंगी पुस्तके, पोशाक, जूते से लेकर खाने पीने की समान जरूर मिल जाएगी। और तो और दक्षिणा स्वरूप मुंहमांगी शुल्क के रूप में मोटी रकम की वसुली की जा रही है। अब तो न गुरुकुल के शिष्य रहे न गुरुकुल के गुरु अब रह गया तो स्कूल के शिक्षक तथा स्कूल के छात्र। जिसके कारण अब गुरु शिष्य की परम्परा भी लगभग समाप्ति के कागार पर पहुंच चुकी है। इस दुर्गति का कारण स्कूलों के शिक्षकगण है। जो छात्रों के मन मे अपनी जगह बनाने में विफल है। कुल मिलाकर देखा जाए तो गुरुकुल से स्कूल तक कि सफर में आधुनिक शिक्षा का विकास तो हुआ है लेकिन वास्तविक विद्या तथा सामाजिक ज्ञान का पतन भी हुआ है। साथ ही शिक्षक व छात्रों के संस्कार ने भी कमी आई है।
फोटो:- जर्नलिस्ट वेद प्रकाश
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