गुरु पूर्णिमा पर विशेष:-
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समाज जागरण
विश्व नाथ त्रिपाठी
प्रतापगढ़
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गुरु पूर्णिमा का पावन उत्सव आगामी २१ जुलाई को केवल भारत ही नहीं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में बड़े ही उत्साह व समर्पण भाव से मनाया जायेगा।वैसे तो मान्यता है कि आज के ही दिन वेद व्यास जी का पावन अवतरण इस धरा धाम पर हुआ था।उन्होंने वेदों पुराणों को लिपि बद्ध करके सनातनियों को एक आध्यात्म पुंज प्रदान किया था।उनकी इसी जन्म तिथि को गुरु पूर्णिमा के रूप में शिष्यगण मनाया करते हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मठ मंदिरों में ही गुरुदेव की पूजा नहीं होती अपितु गृहस्थ गुरुओं के घर में भी पूजन अर्चन के लिए भीड़ लगी रहती है ।कहां तो यहां तक जाता है कि अदृश्य सिद्धाश्रम में भी तपस्वी संत महात्मा सूक्ष्म शरीर से पहुंच कर सिद्धाश्रम के योगियों का चरण वंदन कर अपना भक्तिभाव का समर्पण किया करते हैं कुछ भी हो लौकिक जगत में हमारे ऋषि मुनियों ने जीवन गुरू को देवता से भी उच्च स्थान दिया है तभी तो गो स्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:-
गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई।
जउ बिरंचि शंकर सम होई ।।
गो स्वामी जी ने कहा कि बिना गुरू की शरण में गये ब्रह्मा और शंकर के समान प्रतापी होने पर भी व्यक्ति को संसार सागर से मुक्ति नहीं मिल सकती। क्यों कि गुरुदेव एक वैद्य हैं भवरोग से मुक्ति की चिकित्सा केवल उन्हीं के पास है ।क्यों कि—
सुनहु तात अब मानस रोगा।
जिन्हते दुख पावहिं सब लोंगा।।
व्यक्ति के मन में एक स्वल्पाधिक मानस रोग हुआ करता है जिससे मानव इस संसार में अधिक या कम भाव पर भी कष्ट पाता रहता है ।यह मानस रोग आता कहां से है?यदि यह प्रश्न किया जाय तो उत्तर खोजने पर पता चलता है कि मानस रोग का मूल कारण तो मोह है । यह मोह एक असाध्य मानस रोग बन जाता है जिसका इलाज केवल सद्गुरु के पास ही है।
संतों ने कहा भी है:-
एक ब्याधि बस नर मरहिं,
ए असाधि बहुत व्याधि।
पीड़हिं हरदम जीव कहुं
सो किमि लहै समाधि।।
एक असाध्य रोग से मानव की मृत्यु हो सकती है लेकिन यदि कोई विशेषज्ञ चिकित्सक मिल जाय तो उस रोग से छुटकारा मिल जाता है या जीवन में कष्ट कम हो जाता है ठीक वही हाल भवसागर में जीव का है । यहां तो अनेकों भवरोग हैं जिससे जीवन परेशान हैं उस परेशानी से निकलने की दवा केवल सद्गुरु के पास है क्योंकि उसके अंदर ब्रह्मा ,विष्णु और शंकर की सम्बेत शक्ति है ।वह दयालु जीव के उद्धार के लिए ब्रह्मा के रूप में भक्ति रूपी ज्ञान की सृष्टि कर विष्णु के रूप में वह जीवात्मा में उस भक्ति रूपी ज्ञान का पालन करता हुआ शिव बन कर पापों का संहारक बन जाता है ।कितना अद्भुत है यह योग ।जन्म जन्मांतर से विषयों में फंसा यह जीव मानव देह पाने के बाद भी भव सागर में गोते खाता रहता है लेकिन जब परमपिता परमेश्वर की अहैतुकी कृपा जीबी पर होती है तब वे सद्गुरु से मिला देते हैं और वे गुरुदेव मानुष से देवता बनाने में विलम्ब नहीं करते ।
कबीर ने कहा है:-
बलिहारी गुरु आपने
द्योहाड़ी को बार ।
जिन मानुष से देवता
करत न लायी बार ।।
शिष्य जब गुरुदेव के इस पावन भाव को समझ लेता है तब उसके भव बंधन अपने आप ही शिथिल पड़ जाते हैं ।मानस में पड़ा हुआ अंतर जाल अपने आप क्षीण होकर निष्क्रिय हो जाता है । तब उसे एहसास होता है कि अब मेरे ऊपर अनंत ब्रह्मांड नायक प्रभु श्री राम की कृपा होने लगी है।
संत वाणी इस बात को प्रमाणित भी करती है :–
राम कृपा नासहिं सब रोगा,
जौ यहि भांति बनै संयोगा ।
सद्गुरु वैद वचन विश्वासा,
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रघुपति भगति संजीवन मूरी,
अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।
वैद्य और गुरु की वाणी पर जब अटल विश्वास होता है तब भगवान की कृपा के संयोग से शारीरिक और सांसारिक दोनों रोग समाप्त हो जाते हैं । मानसिक रोगों के शमन के साथ ही हमारे भ्रम का निवारण भी गुरुदेव अपनी अमृतमयी वाणी से करते रहते हैं ।
कबीर ने तो गुरुदेव को ही सब कुछ माना था तभी तो अपने अनुभव की बातें बताते हैं ।
तीर्थ गये से एक फल
,संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनेक फल,
कहै कबीर विचारि ।।
इसलिए बंधुओं ! सद्गुरु की शरण में गये विना न तो आवागमन का बंधन छूटेगा और नहीं कुटिलताओं की ग्रंथियों से मुक्ति मिलेगी। न्याय व अन्याय से अर्जित संपत्तियां यहीं रहेंगी लेकिन दोनों के फल का अंतर आपको भोगना ही पड़ेगा। गुरु भक्त और भगवान के बीच एक सेतु का काम करते हैं बिना उनके भक्ति व भगवान की उपलब्धि संभव नहीं है लेकिन कुर्की के आगे भगवान भी नत मस्तक हो जाते हैं क्योंकि उन्हें पता है यह किसी बात को मानने वाला नहीं है। आज भो लोग गुरू व संत को बहुत मानते हैं लेकिन उनकी एक भी नहीं मानते ।
वैसे निंदा या आलोचना तो नहीं करनी चाहिए लेकिन आज संसार में भ्रम फैलाने का कुचक्र चला है जिसमें सनातनी भी भ्रमित होने लगे हैं इसका मूल कारण धर्म ग्रंथों से दूर होना । जब हम पढ़ेंगे ही नहीं तो सुनी बातों को मान कर अपना सर्वनाश के शिवा कर ही क्या सकते हैं । लेकिन इतना सब को मानना पड़ेगा कि जीवन मूल्यों के विकास के लिए गुरु की शरण में जाना ही होगा ।राम व कृष्ण परमात्मा होते हुए भी गुरुदेव की शरण प्राप्त कर अपने जीवन को विकसित कर जीवनमूल्यों को धारण किया ।
जीवन के सांसारिक उद्देश्य की पूर्ति हो या फिर आध्यात्म के उच्चतम शिखर की आकांक्षा दोनों में गुरू का स्थान उतना ही अनिवार्य है जितना देह में आत्मा का । लौकिक गुरू हमारे सांसारिक पथ को प्रशस्त करता है तो आध्यात्मिक गुरू जीव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है ।मानव मात्र के लिए यह कठिन है कि वह किसी अगोचर वस्तु पर विश्वास करें या फिर उसे देखने का प्रयास करें लेकिन गुरु शिष्य परम्परा में यही विश्वास कायम होता दिखाई देता है । गुरु हमेशा प्रयासरत रहता है कि वह अपने शिष्य के समक्ष वह आध्यात्मिक चेतना के प्रतिनिधि के रूप में अवस्थित रहे।उसे दिव्य चेतना से पूर्ण कर भगवान और भक्त के संबंधों की अनुभूति करायें। गुरुदेव का निरंतर प्रयास भी रहता है कि शिष्य की आत्मा को परमात्मा के प्रति प्रबोधित कर उस की सर्वव्यापकता का अनुभव करा दे ।शिष्य का जितना अधिक समर्पण होगा गुरू और इष्ट के प्रति उतनी तीव्रता से वह आगे बढ़ेगा ।
आइए हम सब इस गुरु पूर्णिमा पर गुरु पूजन कर अपने को कृतार्थ करें।