कहानी : मुखियाजी के ग्रेजुएट बहु

लेखक:राम राघव बैंगलोर

चहुँओर मंगलमय वातावरण था, कुछ महिलाएं तो मंगलगान में व्यस्त थी वहीँ कुछ बैना-पिहानी बांटकर घर वापस लौटी थी और बैठकर नवेली बहु के गुण-संस्कार का बखान कर रही थी। हो भी क्यूँ ना आखिर आज गाँव के मुखियाजी के पोत-पुतोहू के ससुराल आगमन पश्चात रसोई स्पर्श का प्रथम दिवस जो था। वस्तुतः आज के भोजन का जायका भी तो नयकी दुल्हिन के अनुसार ही होगा, जिसमें वो अपनी पाक कला की दक्षता और विवाह पूर्व अर्जित खान-पान की समझ को भी ससुरालवालों के सामने प्रदर्शित कर अपने नैहर को गर्व भी महसूस करवा पायेगी।
मुखियाजी का परिवार चार पुत्र एवं पुत्र-वधुओं समेत कुल 27लोगों से भरा-पूरा परिवार था। घर की सम्पन्नता और संयुक्त परिवार के आयाम की चर्चा आस-पास के 20-25 गाँवों में लोगों की जुबान से निकल ही पड़ती थी। सभी स्वजन मुखियाजी को शुभकामनाएँ दे रहे थे, कि अरे आप जैसा सौभाग्य भगवान सबको दें, पोता का बियाह तो देखिये लिए अगर प्रभु की मरजी रही तो स्वर्गारोहण से पाहिले पड़पोता को गोद में जरुरे खिलायेगा।
काफी गुना भाग और काट-छांट के बाद पोते की शादी तय हुई। वधु के चुनाव में यह ध्यान रखा गया किकनियाँ सुन्दर हो न हो लेकिन पढ़ी लिखी और शहर के आहार व्यव्हार से परिचित जरूर होनी चाहिए। चूंकि लड़का स्नातक था और नौकरी के सिलसिले में अगर शहर जाना भी पड़ा तो अच्छी जीवनसंगिनी बन सके। अंततः एक कन्या का चुनाव हुआ और गाँव में कहलवाया गया कि मुखियाजी गाँव में पहली बार सुन्दरता से ऊपर शिक्षा को रखकर बहु ला रहे हैं।
शाम हुई तो बहु घूंघट काढ़कर एक कॉपी पर ससुराल के सभी सदस्यों का नाम लिखकर कौन कितनी चपाती खाएँगे, पूछना शुरू की। मुखिया जी का फरमान जारी हुआ कि सबलोग जल्दी-जल्दी अपनी खुराकी बता दो जिससे कि कनियाँ को राशन आँकने में परेशानी का सामना न करना पड़े। कुछ तो दबी जुबान में यह भी कह रहे थे, ये कौन सी बला है, ऐसा भी कहीं हुआ है क्या? लेकिन सब बहु के इस गुण की चर्चा करने से बचते नजर आये। “अरे भाई पढ़ी-लिखी की बात ही कुछ और होती है”।
सभी सदस्यों की खुराकी का आंकलन तो हो गया, तदनुसार प्रति व्यक्ति के हिसाब से आटा, सब्जी, मसाले, इत्यादि का वजन तैयार हुआ और सम्बंधित नौकरानियों को नाप जोखकर सामान दे दिया गया। एक नौकरानी को आटा गूंथने का, दूसरी को सब्जी काटने, तीसरी को दूध गर्म करने और पायस सामग्री तैयार करने की तथा चौथी को चूल्हे के पास पर्याप्त जलावन, पानी और बर्तन इकठ्ठा करने को तो किसी को सिलबट्टे पर मसाला पीसने को कहा गया।
रसोई बनना प्रारंभ हुआ। कुछ समय पश्चात पकते व्यंजनों की सुगंध प्रांगण में फैलने लगी। सभी लोग संध्याकाल की नित्य-क्रिया से निवृत्त होकर दालान पर बैठकर गप्प हांकने के साथ ही अपनी बढ़ी हुई पेट पर हाथ फेरकर भूखा होने का सन्देश प्रेषित करने लगे। वहीँ घर की महिलाएं पकवान के इंतजार में बहु का गुण-गान किये जा रही थी और खुश भी हो रही थी कि आज किसी और की हाथ का भोजन ग्रहण करने का आनंद मिलेगा। “ग्रामीण परम्परा के अनुसार भोजन का भोग सर्वप्रथम बच्चे और पुरुषों के बाद बुजुर्ग महिलाएं और अंत में ननद भौजाईके खाने की रही है”।


समयानुसार नाना प्रकार का व्यंजन तैयार होने के सन्देश के साथ आमंत्रण भी दालान पर बैठे घर के तथा आमंत्रित पुरुषों को भिजवाया गया। दालान पर ही सभी पुरुष अपने-अपने लोटा में पानी में लेकर पालथी मारकर बैठ गए। केले के पत्ते पर पानी छिड़का गया और नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए। सभी ने भगवान को सुमिरते हुए भोजन आरम्भ किया। बुढिया सासु माँ और मुखियाजी घूम-घूमकर स्वाद का अंदाज पूछते और इतराते। “कहिये कैसा भोजन बना है, नमक-उमक सब ठीक तो है ना”!
भोजन स्वादिष्ट बने होने से सब छककर खाते रहे और साथ ही पौत्र-वधु को पुत्रवती, धनवती, सौभाग्यवती आदि होने का आशीर्वाद बरसाते जा रहे थे। “मजा आ गया क्या भोजन बना है”! जैसी बातों से भोजन के स्वाद को और बढ़ाये जा रहे थे। पहली पंघत उठने के बाद बहु रसोई घर में जाकर खर्च और बचे हुए व्यंजनों का हिसाब किताब करने लगी। पता चला कि साधारणतया कुछ व्यक्ति स्वभावगत अपने अनुमानित या यूँ कहें कि स्वाद के वशीभूत होकर कुछ ज्यादा ही खा गए जिसके कारण भोजन अनुपातिक रूप से कम बचा हुआ था जिसमें बुजुर्ग महिलाओं और ननद भौजाई को खाना था। अपनी बारी आने तक भोजन समाप्त ना हो जाये ये सोचकर नई स्नातक बहु ने एक थाली में खुद के लिए सारा व्यंजन परोसकर रसोईघर में ही राखी कुर्सी पर बैठकर प्रारंभ कर दी। हा-हा ये क्या! बहु ने खाना शुरू कर दिया। कानों-कान खबर सासु माँ और ननद तक पहुँची, जिनको अपने घर की इज्जत को हमेशा पड़ोसियों से सर्वोपरि बताना रहता है, जग-हंसाई ना हो इसलिए भागे-भागे रसोईघर में बहु को देखने पहुँचे अरे! कनियाँ ये क्या कर रही हो? क्या हुआ अक्ल तो ठीक है ना! माँ ने कुछ सिखाया था कि नहीं। थोड़ी देर सब्र नहीं कर सकती थी? आदि-आदि कहकर ताना देने लगी। बहुत पूछने पर बहु ने बताया भूख तो उतनी नहीं लगी लेकिन सभी लोग जिस हिसाब से खाना खाए हैं वह पहले बताई गयी मात्रा से काफी ज्यादा है, इस प्रकार से तो हमारे खाने तक तो कुछ बचेगा ही नहीं, यही सोचकर मैंने अपना खाना खा लिया। बाकी लोग जाने कि आगे क्या करना है? इसमें आपलोग मुझे कोपभाजन का शिकार क्यूँ बना रहे हैं यह समझ से परे है। ऐसा बहु ने सासु माँ को बताया। इस बात की जग-हंसाई ना हो जाये, पतोहू को डांट रही थी कि थोड़ा पूछ तो लेती। दूसरी ओर इस बात की खबर पड़ोस में फैलने का भी डर था कि लोग क्या बोलेंगे। इतने दिनों की बनी-बनायी इज्जत का क्या होगा?
लघु परिवार की लड़की का संयुक्त परिवार की बहु बनने का सफर काफी अनमना सा रहा। वहीँ सम्भ्रांत परिवार के बहु का यह गुण यशस्वी परिवार की कीर्ति को धूमिल करने वाली और स्वार्थपरक कहकर ग्रामीण महिलाएं कंसार-घर की एक चौपाई सी बना डाली।
मुखियाजी के शहरी स्नातक पोत-पुतोहू के गुण-दोष का बखान जो भी हो परन्तु खाने की मात्रा के आंकलन के तरीके एवं संस्कृति से परे स्वयं के खाने का गुण ने तो सभी महिलाओं के होंठ पट-पटाने का एक स्वर्णिम अवसर जरूर दे गया।

लेखक:राम राघव
बैंगलोर

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