पुत्र गीता भाग 5
विश्वनाथ त्रिपाठी
मेधावी नामक बालक को बता रहा है कि मनुष्य माया मे इतना फंस जाता है कि उसे भान ही नहीं होता कि हम यहाँ मरने के लिए आए है, जीवन के सम्पूर्ण भाग मे परामात्मनाम की वरीयता भी होनी चाहिए
आगे अपने पिता से बोल रहा है —-
कृतानाम् फलम् अप्राप्तं,
कर्मणानां कर्म संज्ञितम |
क्षेत्रापण गृहासक्तं ,
मृत्यु: आदाय गच्छति ||
हे पिता जी! यह मानव सांसारिक माया मे फंसा हुआ अपने खेत, दुकान व घर में लगा ही रहता हैऔर जो कर्म कर चुका है उसका फल भी अभी उसको मिल भी नहीं पाया उसके पहले ही मृत्यु उसे लेकर चल देती है |
दुर्बवम् बलवंतम् च,
सूरम् भीरुं जड़ं कविम्|
अप्राप्तं सर्व कामार्थान्
मृत्युरादाय गच्छति ||
हे पिता जी! आप यह भलीभाँति जान लें कि चाहे व्यक्ति दुर्बल हो या बलवान, शूर वीर हो या डरपोक, मूर्ख हो या फिर वह कवि आदि श्रेणी का विद्वान | उसकी समस्त कामनाओं के पूर्ण होने के पूर्व ही मृत्यु उसे मार देती है |
मृत्युरजरा च व्याधिश्च,
दुखं चानेक कारणं |
अनुषक्तम् यदादेहे,
किं स्वस्थ इव तिष्ठति||
जब इस शरीर मे मृत्यु, बुढ़ापा, व्याधि और दुखों का आक्रमण होता ही रहता है तब आप स्वस्थ कैसे हैं |
जा तमेव अंतको अंताय,
जरा चान्वेति देहि |
अनुषक्ता द्वेयेनैते,
भावा: स्थावर जंगमा:|
जीव द्वारा देह धारण करते ही मौत और बुढ़ापा उसको मारने के लिए पीछे लग जाते हैं |संसार सभी चर और अचर प्राणी जरा और मृत्यु के पाश मे बंधे हैं |
मृत्योर्वा मुखमेतद् वै,
या ग्रामेवसतो रति: |
देवानामेष वै गोष्ठो,
यदरण्यमिति श्रुति:||
हे पिता जी! गाव या नगर मे रह कर परिवार के प्रति रुचि बढ़ाई जाती है वह मृत्यु का मुख ही कहा जाता है |और जो जंगल का सहारा ले कर इन्दरियों को वश मे करने का अभ्यास करता है वह गोशाला के समान ही पवित्र मन वाला हो जाता है ऐसा वेद मत है |