आनन्द मार्ग प्रचारक संघ द्वारा जल संरक्षण और पर्यावरणीय सुधार पर तीन दिवसीय सेमिनार शुरू

भुक्ति प्रधान श्री लक्ष्मी नारायण जी ने प्रतिकृति पर माल्यार्पण कर किया और कार्यक्रम की शुरुआत

तीन दिवसीय सेमिनार में जल संकट, वृक्षारोपण और नदी पुनर्स्थापना के मुद्दों पर सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता पर जोर

सेमिनार में विभिन्न जगहों के मार्गी हो रहे हैं शरीक

अररिया ।

आनन्द मार्ग प्रचारक संघ द्वारा ओम नगर स्थित प्राइम हॉल में आयोजित तीन दिवसीय सेमिनार का उद्घाटन 31 जनवरी को भुक्ति प्रधान श्री लक्ष्मी नारायण जी ने किया। उद्घाटन समारोह में श्री लक्ष्मी नारायण जी ने संघ के सभी सदस्यों के साथ प्रतिकृति पर माल्यार्पण किया और कार्यक्रम की शुरुआत की। सेमिनार का उद्देश्य जल संकट, पर्यावरणीय गिरावट और सतत भूमि प्रबंधन पर गहरी चर्चा और समाधान की दिशा में कदम उठाना था।

इस सेमिनार का पहला सत्र आनन्द मार्ग के केंद्रीय प्रशिक्षक आचार्य सत्याश्रयानन्द अवधूत ने संबोधित किया। उन्होंने पर्यावरणीय संकट और जल संकट से निपटने के लिए पारंपरिक ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के संयोजन की आवश्यकता पर बल दिया। आचार्य ने चार प्रमुख उपायों की सिफारिश की, जो जल संरक्षण और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं:

  1. पारंपरिक ज्ञान के साथ वैज्ञानिक फसल प्रबंधन का एकीकरण: जैसे बार्ली और सब्जियों जैसी फसलों को एक साथ उगाना जल का प्रभावी उपयोग करने में मदद कर सकता है, जिससे जल अपव्यय को कम किया जा सकता है और जल संसाधनों का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। बार्ली को सब्जियों की तुलना में कम पानी की आवश्यकता होती है, और बहते पानी से फसलों को बिना विशेष बुनियादी ढांचे के सिंचाई की जा सकती है।
  2. जल संरक्षण के लिए वृक्षों की रणनीतिक रोपाई: विशेष रूप से फलदार वृक्षों को नदी किनारों और कृषि क्षेत्रों के पास लगाना मिट्टी में पानी बनाए रखने में मदद कर सकता है, जिससे नदियाँ और झीलें सूखने से बच सकती हैं। यह दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि पानी वृक्षों की जड़ प्रणालियों में संग्रहित हो और धीरे-धीरे जारी हो, जिससे स्थानीय जल निकायों और आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्रों की सेहत बनी रहती है।
  3. वनों और नदी प्रणालियों की पुनर्स्थापना: नदी किनारों पर वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण कई नदियाँ सूख चुकी हैं, जैसे कि बंगाल की मयूराक्षी नदी। पहले इन नदियों के माध्यम से बड़े जहाजों का आवागमन होता था, लेकिन अब जल प्रवाह कम होने के कारण केवल छोटे नाव ही इन नदियों में चल सकते हैं। वनों का संरक्षण और पुनर्स्थापना जल चक्रों को स्थिर करने और हमारे जल संसाधनों की रक्षा करने के लिए आवश्यक है।
  4. विकेन्द्रीकृत जल प्रबंधन: तालाबों, झीलों और जलाशयों जैसे मौजूदा जल भंडारण प्रणालियों की गहराई और क्षेत्रफल को बढ़ाना बहुत महत्वपूर्ण है। यह पौधों की संख्या बढ़ाकर और छोटे पैमाने पर जलाशयों का निर्माण करके प्राप्त किया जा सकता है। सतही जल भंडारण क्षमता को बढ़ाकर हम एक अधिक लचीला और सतत जल प्रणाली बना सकते हैं।

इस अवसर पर आचार्य जगतदीपानन्द अवधूत, आचार्य मुक्तेश्वरानंद अवधूत, आचार्य धनंजयानंद अवधूत, आचार्य कृत्यभुषणानंद अवधूत, आचार्य सुखदीपानंद अवधूत, रीजनल सेक्रेटरी आचार्य रत्नमुक्तानंद अवधूत, अवधुतिका आनंद सुनीति आचार्या, आनंद लक्षिता आचार्या और आनंद लीना आचार्या सहित सैकड़ों लोग कार्यक्रम में शामिल हुए।

सेमिनार में अररिया के जनसंपर्क सचिव पंकज देव, मुखिया रमेश राय, पूर्व मुखिया मनोज सिंह और अन्य स्थानीय नेता भी उपस्थित थे। आचार्य सत्याश्रयानन्द ने अपने संबोधन में कहा कि जल संकट और पर्यावरणीय गिरावट के समाधान के लिए हमें एकजुट होकर काम करना होगा। उन्होंने समाज के सभी वर्गों से अपील की कि वे जल और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जिम्मेदारी से कदम उठाएं, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और स्थिर पारिस्थितिकी तंत्र सुनिश्चित किया जा सके।

आचार्य ने यह भी कहा, “यह हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का संतुलन बनाते हुए जल संरक्षण और पर्यावरणीय सुधार के प्रयासों को बढ़ावा दें।

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