पुरुष पल-पल नारी को एहसास करा देता है कि तुम अब भी अबला हो, यही नहीं अघरा भी हो

समर्पण की साक्षात् प्रतिमूर्ति नारी प्रायः पुरुष की दया को ही आश्रय मान हो जाती है दयनीय


*आलेख:पूजा मिश्रा*


अघरा नारी, तुम्हें अबला कहा जाता है। एक समय था जब नारी अपने को अबला स्वीकारने लगी थी। अब शिक्षा के प्रसार के कारण या कि विज्ञान के विभिन्न विस्मयकारी तथ्यों का पता लगने से नारी अपने को अबला समझने से कतराती रही है, लेकिन कब तक! पुरुष पल-पल उसे एहसास करा देता है कि तुम अब भी अबला हो, यही नहीं अघरा भी हो।

नारी जिस घर में नन्हीं कलिका की भांति अंकुरित, प्रस्फुटित व पल्लवित होती है। उसी को अपना मान लेती है। जैसे ही उसके मोह-संवर्धन का पता लगता है, उसे एहसास कराया जाता है कि यह घर उसका अपना नहीं है। वह तो पराया धन है यहां। धर्म नारी के आड़े आता है। बात बनाने को दिल बहलाने को उसे विश्वास दिलाया जाता है कि पति का घर उसका अपना घर होगा। पति का घर पहले तो उसे अनजाना-सा लगता है। शनैः-शनैः उसे घर से तथा घर को उससे लगाव होता चला जाता है, लेकिन यहां भी उसे गाहे-बगाहे एहसास कराया जाता है कि यह घर उसका नहीं है।
वह कभी भी निष्कासित की जा सकती है। यहां राजनैतिक कानून उसके सहायक हो सकते हैं। किंतु समर्पण की साक्षात् प्रतिमूर्ति नारी प्रायः पुरुष की दया को ही आश्रय मान दयनीय हो जाती है। कहीं वह पुत्र के आश्रित हुई तो वह घर भी उसका अपना नहीं होता। पुत्र का होता है घर का स्वामित्व। मां का हो इस स्थिति को न तो पुत्र ही स्वीकारता है, न ही समाज और येन-केन-प्रकारेण छल से, बल से या मोहाधिक्य के आवेश से स्वामित्व पुत्र की झोली में आ ही जाता है और नारी पुत्र के घर से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करती हुई निःशेष हो जाती है।
हां, नारी के स्वामित्व से समाज को अपच हो जाता है। सम्भवतः एक तरह से नारी के लिए अघरा होना एक वरदान भी है। क्योंकि अंत समय में उसे घर छोड़ने का मर्मांतक दुख नहीं झेलना पड़ता। क्योंकि उसका तो कोई घर ही नहीं। वह अघरा थी, अघरा रही और अघरा ही चली जाती है। अब भी समय है कि नारी चेते अपनी अस्मिता को पहचाने और पुरुष को यह सोचने को विवश करे कि नारी और घर एक दूसरे के पर्याय हैं। नारी से घर है और घर से नारी। नारी के कारण ही चारदीवारों के घेरे को घर की संज्ञा दी जा सकती है। घर का इतिहास नारी के द्वारा ही लिखा जाता है। एक तरह से घर के अस्तित्व का आधार-स्तम्भ ही नारी है नारी को अघरा कहना घर के सम्मान को ही नकारना है और समूचे समाज के विश्वास की चूलों को निर्बल करना है।

*लेखिका पूजा मिश्रा नई दिल्ली में एचआर एग्जीक्यूटिव पद पर कार्यरत हैं*