बीसवीं सदी के महान संत महर्षि संतसेवी परमहंस जी महाराज के 16 वां महा परिनिर्वाण दिवस 4 जून पर विशेष*



रामचरितमानस एक विलक्षण ग्रंथ जिसमें इहलौकिक और पारलौकिक दोनों लोकों में सुखमय जीवन जीने की कला बतलायी गई है:महर्षि संतसेवी परमहंस


*डा. रूद्र किंकर वर्मा।*

भगवान बुद्ध ने कहा था,‘स्मरण के लिए न दोहराना धब्बा है।’ किसी बात की स्मृति बनी रहे, इसलिए उनकी पुनरावृत्ति आवश्यक होती है।
रामचरितमानस एक विलक्षण ग्रंथ है, जिसमें इहलौकिक और पारलौकिक दोनों लोकों में सुखमय जीवन जीने की कला बतलायी गई है। इस ग्रंथ में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञानों का समावेश है। जो कोई तदनुकूल अपना आचरण कर पायेंगे, उनका उभय लोक कल्याणमय होगा, इसमें संशय का स्थान नहीं है।
रामचरितमानस को लोग भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखा करते हैं। कोई कहते हैं, रामचरितमानस एक काव्य ग्रंंथ है। इसमें चौपाइयाँ, दोहे, छंद, सोरठे आदि में जितनी- जितनी मात्र होनी चाहिए, उतनी ही मात्र में बँधे हैं। काव्य के नौ रस के साथ-साथ इसमें अलंकार की भरमार है। उपमा-उपमेय तो डेग-डेग पर भरे पड़े हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी स्वीकार करते हैं-
“ नौ रस जप तप जोग विरागा ।
ये सब जलचर चारु तड़ागा ।।”
कोई कहते हैं कि यह एक पारिवारिक ग्रंथ है। संभ्रान्त परिवार के लोग आपस में किस तरह व्यवहार करते हैं, रामचरितमानस में उसी का चित्रण किया गया है। भाई का भाई के प्रति, पिता का पुत्र के प्रति, पुत्र का पिता के प्रति, पति का पत्नी के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, राजा का प्रजा के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए; यह इसमें बतलाया गया है।
राजा दशरथ श्रीराम को युवराज के पद पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे, पर कैकयी की कुमंत्रणा के कारण अयोध्या के राज्य के बदले राम को जंगल जाना पड़ा। समझने की बात है कि जिसको पिता सारी सम्पत्ति दे रहा हो, राज-पाट दे रहा हो, उसके बदले उसको दूसरे ही क्षण जंगल जाने को कहा जाए, तो उसका हृदय क्या कहेगा? राज-पाट पाने की आशा से कितना उल्लास हुआ होगा और जंगल जाने की बात सुनकर कितना उदास होगा वह, पर श्रीराम के चित्त में रत्तीभर भी मलिनता नहीं आई। उन्होंने पिता की आज्ञा को सर्वोपरि माना। युवराज पद ग्रहण करने की आज्ञा हो या जंगल जाने की, राम के लिए दोनों एक समान था। वे सहर्ष जंगल चल पड़े। यहाँ गोस्वामीजी ने दिखलाया है कि पुत्र को पिता का कैसा आज्ञाकारी होना चाहिए।
जहाँ पुत्र का यह कर्त्तव्य है, वहाँ पिता का पुत्र के प्रति कैसा स्नेह होता है, यह भी दिखलाया गया है। राजा दशरथ नहीं चाहते थे कि राम को जंगल भेजा जाए, पर विवश होकर भेजना पड़ा। जिस कारण वे पुत्र-वियोग की वेदना सह न सके। उधर राम कानन गमन करते हैं, इधर राजा दशरथ के प्राण सुरपुर गमन करते हैं।
रामचरितमानस बतलाता है कि पति-पत्नी का संबंध कैसा होना चाहिए। जब सीताजी को मालूम होता कि भगवान श्रीराम जंगल जा रहे हैं, तो सम्मुख उपस्थित होकर पूछती है कि क्या आप जंगल जा रहे हैं? भगवान श्रीराम कहते हैं-‘हाँ, पिताजी की आज्ञा है।’ सीताजी कहती हैं-‘मैं भी आपके साथ चलूँगी।’ भगवान राम कहते हैं-‘नहीं, तुम अयोध्या में ही रहो। जंगल में कष्ट-ही-कष्ट है। वहाँ खाने के लिए मात्र कन्द, फल, मूल ही मिलेंगे और वह भी कभी नहीं मिला, तो भूखा भी रहना पड़ेगा। तुम जाड़ा, गर्मी और बरसात का दुःख नहीं झेल सकोगी। तुम राजकुमारी हो, जनक-दुलारी हो, मेरी प्राण-प्यारी सुकुमारी हो। जंगल के पथरीले, कँटीले मार्ग पर कैसे चल सकेगी? जबतक मन लगे, अयोध्या में रहना; नहीं लगे, तो जनकपुर चली जाना। फिर जब वहाँ मन नहीं लगे, तब अयोध्या आ जाना। इस तरह अयोध्या-जनकपुर आवागमन करते-करते चौदह वर्ष बीत जाएँगे?’ सीताजी कहती हैं-‘आप मुझे सुकुमारी कहते हैं, जनकदुलारी कहते हैं। आप भी तो राजा दशरथ के दुलारे हैं और मेरे प्राण प्यारे हैं। आपने जंगल के जिन कष्टों का वर्णन किया है, मैं उससे घबड़ाती नहीं। पत्नी का पुनीत कर्त्तव्य होता है कि वह पति के सुख-दुःख में हाथ बँटाए। इतने दिनों तक अयोध्या में रहकर मैंने आपके सुखोपभोग का आधा सुख भोग लिया है, अब आपके साथ जंगल जाकर दुःख में भी आधा हिस्सा लूँगी। जागतिक जितने सुख हैं, सभी तराजू के एक पलड़े पर रख दिए जाएँ और पत्नी के लिए जो पति का सुख है, उसको दूसरे पलड़े पर रखा जाए, तो भी इसकी बराबरी वह नहीं कर सकता।
आकाश में कितने भी तारें हों, परन्तु चन्द्रमा नहीं हो, तो वह शोभाहीन होता है; उसी तरह पति के बिना नारी शोभाहीन है। जिस तरह जल के बिना मछली का जीवन नहीं, उसी तरह पति के बिना नारी का जीवन नहीं। मैं आपके साथ वन चलूँगी। आप आदेश देने की कृपा करें।’ भगवान श्रीराम ने जब देखा कि यह माननेवाली नहीं है, तो साथ चलने की आज्ञा दे देते हैं।
जहाँ नारी पति-सेवा में अपने सारे सुखों का त्यागकर सकती है, वहाँ पति का पत्नी के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है, यह भी देखिए। जब सीताजी का हरण होता है, तो भगवान श्रीराम उनके उद्धार के लिए कोर-कसर नहीं रखते हैं, बल्कि जो सीता हरण करता है, श्रीराम-द्वारा उसका सवंश मरण होता है।
रामचरितमानस यह भी बतलाता है कि भाई-भाई में किस प्रकार का संबंध होना चाहिए। जब लक्ष्मणजी को मालूम होता है कि भगवान श्रीराम जंगल जा रहे हैं, तो वे उनके पास आते हैं और कहते हैं-‘भैया! मालूम हुआ है कि आप जंगल जा रहे हैं, मैं आपकी सेवा में जंगल जाऊँगा।’ श्रीराम ने कहा- ‘लक्ष्मण! जरा सोचो, भरत और शत्रुघ्न ननिहाल में हैं, जानकी मेरे साथ जंगल जा रही है। पिताजी जब हमारे लिए विकल होंगे, तो उनको सान्त्वना कौन देगा, कौन सम्हालेगा?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘वे तो महाराज हैं, उन्हें मैं क्या सान्त्वना दूँगा? मैं तो आपका सेवक हूँ, आपके साथ चलूँगा।’ भगवान राम ने कहा-‘अच्छा, अपनी माताजी से आज्ञा ले लो।’ लक्ष्मणजी माता सुमित्र से सारी बातें बताकर श्रीराम-सीता की सेवा के लिए वन जाने की आज्ञा माँगते हैं।
अगर सुमित्रा के मन में सौतिया डाह होती, तो बेटे से यही कहती कि तुम अयोध्या में मंगल करो, जंगल में पता नहीं, क्या खड़मंगल हो जाए? पर ऐसा नहीं कहती, बल्कि कहती है-‘बेटा! सीता-राम की सेवा में अवश्य जाओ।’
“ पुत्रवती जुवती जग सोई ।
रघुपति भगतु जासु सुत होई ।।
नतरु बाँझ भल वादि विआनी ।
राम विमुख सुत ते हित जानी ।।”
‘देखो बेटा! मैं तो इस जन्म में तुम्हारी माँ हूँ, पूर्व जन्म में तुम्हारी माँ नहीं थी और आगे जन्म में भी नहीं रहूँगी, किन्तु ये सीता-राम तुम्हारे पूर्व जन्म के माता-पिता हैं, इस जन्म के माता-पिता हैं और भविष्य-जन्म के भी माता-पिता रहेंगे। जो संतान अपने माता-पिता के पास रहती है, माता-पिता उसे कभी कष्ट नहीं होने देते। इसलिए संतान का कर्त्तव्य का कि वह अपने माता-पिता को कष्ट नहीं होने दे। देखना बेटा! उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न होने पाए। स्वप्न में भी उन्हें कष्ट नहीं हो, ऐसा ध्यान रखना।’ लक्ष्मणजी ने कहा-‘माँ! जबतक मैं जाग्रतावस्था में रहूँगा, उन्हें कोई कष्ट होने नहीं दूँगा, पर जब मैं स्वप्नावस्था में चला जाऊँगा, तब क्या कर सकता हूँ? लेकिन आपकी आज्ञा है कि स्वप्न में भी कष्ट नहीं होने देना, तो मैं आपके चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि जबतक उनकी सेवा में रहूँगा, मैं सोऊँगा नहीं।’ लक्ष्मणजी ने सिर्फ कहा ही नहीं, करके दिखला दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने नवविवाहिता पत्नी को घर में छोड़कर चौदह वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत में रत, निराहारी होकर गुडाकेश बन, वन में श्रीराम की सेवा किस भाँति की, विशेष अत्याश्चर्य- जनक है। इस प्रसंग की एक रोमांचकारी मनोहारी कथा हैै-
जब भगवान श्रीराम रावण को मारकर जानकीजी के साथ अयोध्या लौटे और राज्य संचालन करने लगे, तो एक दिन उन्होंने लक्ष्मणजी से पूछा-‘लक्ष्मण! मेघनाद को तो वही मार सकता था, जिसने बारह वर्षों तक नारी का संग नहीं किया हो, बारह वर्षों तक दिवा-निशि कभी सोया नहीं हो और बारह वर्षों तक कुछ खाया नहीं हो। यह मैं मानता हूँ कि तुमने बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किया है; क्योंकि तुम जंगल में थे और उर्मिला अयोध्या में थी, तुम बारह वर्षों तक सोये नहीं, जगकर पहरा किया करते थे। किन्तु, इस अवधि में तुम कुछ खाये नहीं, यह कैसे माना जाए? तुम प्रतिदिन जंगल से कंद, मूल, फल लाते थे, तो मैं ही तीन हिस्से लगाकर तुम्हें एक हिस्सा देता था, फिर तुमने खाया कैसे नहीं?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘हिस्सा तो आप मुझे देते थे और कहते थे-लो लक्ष्मण! यह कभी नहीं कहा कि खा लक्ष्मण। इसलिए आपके आदेशानुसार मैंने लिया अवश्य, पर खाया नहीं।’ भगवान श्रीराम ने पूछा-‘तुमने कभी खाया नहीं, तो उस भोजन को तुमने क्या किया?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘चौदह वर्षों में हमलोग जिस-जिस जंगल में जितने-जितने दिनों तक जहाँ-जहाँ रहे, प्रतिदिन का भोजन मैं वहीं पृथ्वी में गाड़ देता था, वह आज भी सुरक्षित है, आप उन्हें मँगाकर देख सकते हैं।’
अब समस्या सामने आयी कि उन स्थानों से भोजन खोजकर लाए तो कौन?’ जो काम किसी से नहीं हो सकता, उसके करनेवाले तो हनुमानजी थे ही। भगवान ने कहा-‘जाओ हनुमान! लक्ष्मण जहाँ-जहाँ बतलाता है, वहाँ-वहाँ से भोजन खोजकर ले आओ।’ भगवान की आज्ञा पाकर हनुमानजी भोजन खोजकर ले आए। भगवान तो अन्तर्यामी थे, सब जानते ही थे, पर लोगों को विश्वास दिलाने के लिए गणना करवायी गयी। गणना करते-करते सात दिनों का भोजन नहीं मिला। भगवान ने पूछा-‘लक्ष्मण! इन सात दिनों का भोजन कहाँ है?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-‘भैया! इन सात दिनों में मेरी कौन पूछे, आपलोगों ने भी कुछ नहीं खाया है।’ भगवान ने पूछा-‘कैसे?’ लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-(1) जिस दिन हमलोग अयोध्या से जंगल के लिए प्रस्थान किए थे, (2) जिस दिन हमलोगों को पिताजी की मृत्यु का समाचार मिला था, (3) जिस दिन सीता का हरण हुआ था, (4) जिस दिन रावण ने माया सीता का वध किया था, (5) जिस दिन रावण ने आपके माया मुंड और धनुष का प्रदर्शन किया था, (6) जिस दिन मुझे शक्तिवाण लगा था, जब सेवक ही मृत्युशय्या पर पड़ा था, तो भोजन लाता कौन? और (7) जिस दिन रावण-वध हुआ, उस दिन खुशियाँ मनाते रहे, खुशी के मारे हमलोगों ने भोजन नहीं किया।’
भाई-भाई का कैसा विलक्षण प्रेम है! लक्ष्मणजी ने चौदह वर्षों तक भूखे रहकर, दिन-रात जगकर, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भाई की सेवा में रहे।
भगवान श्रीराम के वन-गमन के समय भरत और शत्रुघ्न ननिहाल में थे। जब वे दोनों अयोध्या आते हैं, तो भगवान राम, जानकी और लक्ष्मण के वन-गमन की बात जानकर वे बड़े दुःखी होते हैं और जंगल चलते हैं, उनको मनाकर लौटा लाने के लिए। आज एक इंच जमीन के लिए भाई-भाई लड़ाई करते हैं। वह लड़ाई भी कैसी, जान लेने पर उतारु हो जाते हैं, पर भरतजी अयोध्या के राज-पाट को भाई के प्रेम में ठुकरा देते हैं। वह अयोध्या का राज्य भी कैसा था? गोस्वामीजी लिखते हैं-
“ अवध राज सुर राज सिहाहीं ।
दशरथ धन लखि धनद लजाहीं ।।”
भरतजी भगवान राम को अयोध्या लौटाने के लिए बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करते हैं, किन्तु भगवान श्रीराम कहते हैं कि पिताजी की आज्ञा सर्वोपरि है। तुम अयोध्या का राज्य करो, मैं कानन-राज्य करता हूँ। यदि तुम्हारा मन नहीं मान रहा है, तो मेरी खड़ाऊँ ले जाओ। इतना कहकर वे अपनी खड़ाऊँ भरतजी को दे देते हैं। भरतजी भाई की खड़ाऊँ को सिर पर रखकर अयोध्या आते हैं और जैसे भगवान राम जटा-जूट बनाकर जंगल में रहते थे, वैसे ही भरतजी तपस्वी वेश में नन्दीग्राम में कुटिया बनाकर रहने लगे, राज्य सुख नहीं भोगे।
इन्हीं सब विशेषताओं के कारण कुछ लोग रामचरितमानस को पारिवारिक ग्रंथ कहते हैं। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि भगवान सगुण-साकार रूप में अवतार लिए थे। रामचरितमानस में उसी का वर्णन है। कोई कहते हैं-नहीं, केवल सगुण-साकार ही नहीं, इसमें निर्गुण-निराकार ब्रह्म की महिमा भी गायी गई है, बल्कि निर्गुण-निराकार को सुलभ बतलाया गया है; यथा-
“ निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोय ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।”
कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि रामचरितमानस में यह भी बतलाया गया है कि राजा का प्रजा के लिए क्या कर्त्तव्य होना चाहिए। भगवान श्रीराम के राजत्व काल में प्रजा को किसी प्रकार का दुःख नहीं था, सभी सुखी थे।
“ दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
रामराज काहू नहिं व्यापा ।।”
वहाँ अतिवृष्टि या अनावृष्टि नहीं होती थी, बल्कि-
‘माँगे वारिद देहिं जल, रामचन्द्र के राज ।’
ऐसा नहीं कि इतनी वर्षा हुई, जिससे फसल नष्ट हो गई या वर्षा के अभाव में फसल नहीं हुई। उनके समय में ऐसा माना जाता था कि-
“ जाहि राज प्रिय प्रजा दुखारी ।
ते नृप अवसि नरक अधिकारी ।।”
इसलिए राजा सब प्रकार से प्रजा की देखभाल करते थे। उसमें भी भगवान श्रीराम कोई साधारण राजा नहीं थे। वे जानते थे कि अभी तो मेरी प्रजा सब तरह से सुखी है, पर एक-न-एक दिन इन सबका शरीर अवश्य छूटेगा। इसलिए जैसे यहाँ मेरी प्रजा सुखी है, उसी तरह शरीर छूटने पर भी सुखी रहे। इसलिए उन्होंने अपनी प्रजाओं, गुरुजनों, पुरजनों और ब्राह्मणों को बुलाया और कहा-
“ सुनहु सकल पुरजन मम बानी ।
कहउँ न कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई ।
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ।।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई ।
मम अनुसासन मानै जोई ।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई ।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई ।।”
भगवान कहते हैं-‘सुनो! मैं ममताग्रस्त होकर नहीं कह रहा हूँ और न अन्याय की बात कह रहा हूँ। जो नीति सम्मत और उचित बात है, वही कह रहा हूँ। मेरी बात अच्छी लगे, तो कीजिए, अच्छी नहीं लगे, तो नहीं कीजिए। मेरी ओर से कोई दबाव नहीं है, बल्कि छूट है कि यदि मेरी बात अनुचित हो, तो निडर होकर कह दीजिए कि आपकी अमुक बात न्यायोचित नहीं है।
“ बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।।”
आपलोगों को जो मनुष्य का शरीर मिला है, यह आपलोगों का अहोभाग्य है; क्योंकि यह देव-दुर्लभ शरीर है। यदि हम विवेक विलोचन से अवलोकन करें, तो प्रश्न सामने आएगा कि यह शरीर देव-दुर्लभ कैसे है?
फिर नरतन में सुर-दुर्लभता की क्या बात रही? वास्तविक बात तो यह कि एक करोड़ रुपये का घोड़ा हो या पचहत्तर हजार का कुत्ता, भगवद्-भजन करके भवसागर से छूट नहीं सकता, किन्तु भीख माँगनेवाला ही क्यों न हो, यदि उसे क्रिया बतला दी जाए, तो साधना करके वह त्रय तापों से, भवसागर के आवागमन से छूट सकता है। दूसरी बात यह कि देवताओं के लिए जो मानव-शरीर को दुर्लभ बतलाया गया है। इसका भी कारण है-
“ इन्द्रिय सुर न ज्ञान सुहाई ।
विषय भोग पर प्रीति सदाई ।।
आवत देखहिं विषय बयारी ।
ते हठ देहिं कपाट उघारी ।।”
देवगण विषय-लोलुप होते हैं। जो विषयी हैं, उन्हें निर्विषय से क्या लेना? आज भी कितने ऐसे व्यक्ति हैं, जिनको जागतिक समृद्धि है, उनको भक्ति अच्छी नहीं लगती। देवगण विषय भोग में रत रहते हैं, पर उनको रोग नहीं होता। मनुष्य उतना भोग करे, तो वह रोगी हो जाएगा। मनुष्य-शरीर की विशेषता क्या है, गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
“ नहिं ऐसो जनम बारंबार ।
का जान्यो कछु पुण्य प्रगट्यो, तेरो मानुषावतार ।।
घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार ।
वृक्ष ते फल टूटि पड़ि हैं, बहुरि न लागत डार ।।”
जैसे वृक्ष से फल गिर जाए, तो कितना ही प्रयास करे, वह फिर उस डाल से जुड़ता नहीं। उसी तरह हमारे जीवन का जो अंश चला गया, वह जुड़़ेगा नहीं।
उसी तरह हमलोग भी चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते-करते मनुष्य-शरीर में आए हैं अर्थात् ‘पौ’ पर आ गए हैं। अब यदि हमारा चित्त एक होकर प्रभु से लग जाए, तो गोटी लाल हो जाएगी यानी जीवन निहाल हो जाएगा, नहीं तो, फिर चौरासी लाख योनियों में जाकर दुःख झेलना पड़ेगा।
भगवान राम कहते हैं-
‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा ।’
इस शरीर में रहकर जो साधन कीजिए, सफलता मिलेगी। यही शरीर है-कोई सिपाही, कोई दारोगा, कोई एस-पी- बना हुआ है। कोई कंगाल है, तो कोई सेठ बना हुआ है। इसी शरीर में मोक्ष का द्वार भी है। हम शरीर में नौ द्वारों को देख रहे हैं, वे हैं-आँख के दो, कान और नाक के दो-दो, मुँह का एक और मल-मूत्र विसर्जन का एक-एक द्वार। इनमें से कोई भी मोक्ष का द्वार नहीं है। इस शरीर में दसवाँ द्वार भी है, पर वह बाहर में नहीं, अन्दर में है; वही है मोक्ष का द्वार।
नौ द्वारों में रहोगे, तो विषयों में दौड़ते रहोगे, दसवें द्वार में जाओगे, तो अपने घर जाओगे।
“ क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है दिलवर पै जाने के लिए ।।”
प्रभु पाने का रास्ता शहरग अर्थात् सुषुम्ना में है। इसी को दसवाँ द्वार और आज्ञाचक्र भी कहते हैं। जो यहाँ ध्यान लगाते हैं, उन्हें प्रभु की ओर से आने की आज्ञा मिल जाती है। पुनः भगवान श्रीराम कहते हैं कि इस संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए यह शरीर नाव है और प्रभु की कृपा अनुकूल वायु है। नाव मिल जाए और वायु भी अनुकूल हो, पर यदि नाव को खेनेवाला न हो, तो नाव किसी भँवर में फँसकर डूब सकती है या किसी चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो सकती है। इसलिए कुशल नाविक की आवश्यकता होती है। इस शरीर-रूपी नाव के नाविक कौन? भगवान राम कहते हैं-
“ करनधार सद्गुर दृढ़ नावा ।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।।”
शरीर-रूपी नाव के नाविक संत सद्गुरु हैं। हमें मनुष्य का शरीर मिल गया है। प्रभु की कृपा मिल गई है। खोजने से गुरु भी मिल जाते हैं। इतना होने पर भी यदि कोई भव-सागर पार नहीं होता है, तो वह कृत निन्दक है, उसे आत्महत्या का पाप लगेगा।
रामचरितमानस में जहाँ हम ‘बड़े भाग मानुष तनु पावा’ पढ़ते हैं, वहाँ यह भी पढ़ते हैं कि ‘बड़े भाग पाइय सत्संगा’ अर्थात् जब हम सत्संग करते हैं, तो हमारा भाग्य और बड़ा हो जाता है; क्योंकि उससे भक्ति-पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है। इच्छा होती है कि हम भी भक्ति करें, किन्तु भक्ति करें कैसे? यह जानने के लिए गुरु की शरण में जाते हैं, तब भाग्य और बढ़ जाता है।
“ जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु वेदहु बड़ भागी ।।”
संत सद्गुरु से युक्ति सीखकर जब हम साधना करने लग जाते हैं और अपने अन्दर मानस ध्यान कर गुरु का दर्शन करने लगते हैं, तब हमारा भाग्य और भी बढ़ता है। संत तुलसी साहब ने कहा है-
“ दर्शन उनके उर माहिं करै बड़भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।”
जिज्ञासा हो सकती है-वह नाव कौन-सी है? हमारे परम पूज्य गुरुदेव इसका उत्तर देते हैं-
“ बिन्दु नाद अगुआइ, तुमहिं ले जाएँगे ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’ ज्योति मंडल सह नाद,
की सैर दिखाएँगे ।।”
मानस ध्यान स्थूल-सगुण-साकार भक्ति है। जब सूक्ष्म- सगुण-साकार ध्यान करते हैं, तब प्रकाश का दर्शन होता है। गोस्वामीजी कहते हैं-
“ श्री गुरुपद नख मनिगन जोती ।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सु प्रकासु ।
बड़े भाग उर आवहिं जासू ।।”
आगे और भी कुछ बाकी रह जाता है, जो कि महर्षि मेँहीँ-पदावली में लिखित है।
“ अमृत ध्वनि की नौबत झहरत, बड़भागी सुनते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती, ‘मेँहीँ’ प्रभु मिलते ।।”
साधक प्रकाश में जाने के बाद शब्द भी सुनता है और आदिशब्द को पकड़कर वह परम प्रभु परमात्मा के पास पहुँच जाता है। वहाँ जीव और पीव मिलकर एक हो जाता है। साधक को विलक्षण आनंद की प्राप्ति होती है। ऐसे व्यक्ति के भाग्य का कहना ही क्या! उसका भवबंधन छूट जाता है और वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है। यही मानव-तन की उपादेयता है।