डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव रवि की 82 वीं जयंती पर विशेष*


‘व्यक्ति’ से ‘विशेषण’ हो चुके डॉ. रवि को नमन

पटना/मधेपुरा/डॉ. अमरदीप।



पूरा नाम डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव रवि। प्राध्यापक, प्राचार्य, कुलपति, कवि, विधायक, सांसद, अद्भुत वक्ता, संगठनकर्ता, समाजसेवी – एक सम्पूर्ण व्यक्ति, जिसके कई रूप थे और हर रूप की अनगिनत छवियां थीं। टी.पी. कॉलेज, मधेपुरा के प्राध्यापक और प्राचार्य, भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति, सिंहेश्वर के विधायक, मधेपुरा के सांसद, राज्यसभा के सदस्य तथा कई शैक्षणिक व साहित्यिक संस्थाओं के संस्थापक और संरक्षक के तौर पर इन्होंने कोसी के इस बड़े इलाके में अपनी अमिट छाप छोड़ी और 14 मई 2021 को कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इहलीला समाप्त होने तक अपनी बहुमुखी प्रतिभा से मधेपुरा की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया।

डॉ. रवि छात्र जीवन से ही सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। 1960 से 1984 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व कांग्रेस (इ) से संबद्ध रहे। 1981 में मधेपुरा के सिंहेश्वर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस (इ) प्रत्याशी के रूप में विधायक निर्वाचित हुए। 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद तत्कालीन नेतृत्व से वैचारिक प्रतिबद्धता आहत होने के कारण इन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। इनके विचार और दृष्टि पर कभी ‘दल’ और ‘वाद’ हावी न हुआ। यही वजह रही कि इन्होंने इंदिरा और लोहिया को अपने वैचारिक स्थिरांक पर एक साथ देखा, समझा और स्थान दिया। समाजवादी आग्रह के कारण आगे उसी धारा से जुड़े। कर्पूरी ठाकुर के व्यक्तित्व और चिन्तन ने इन्हें प्रभावित किया। 1985 में वे दुबारा सिंहेश्वर से विधायक हुए और इस बार दलित मजदूर किसान पार्टी (बाद में लोकदल) के टिकट पर। इसके बाद 1989 लोकसभा चुनाव में मधेपुरा से जनता दल प्रत्याशी के रूप में इन्होंने रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की। उस चुनाव में इन्हें 68.4 प्रतिशत मत मिले थे, जो स्वतंत्रता के बाद से अब तक इस सीट पर किसी भी दल के प्रत्याशी द्वारा हासिल किया गया सर्वाधिक मत है।

संसद में चाहे पेटेंट और विनिवेश विधेयक का विरोध हो, चाहे कृषि उपज के मूल्यों में गिरावट और बजट में आम आदमी की अनदेखी का मसला, बात भूमंडलीकरण के दौर में ‘भारत और विश्व’ की हो रही हो या फिर आज भी सुलग रहे जम्मू और कश्मीर की, वाद-विवाद के दौरान इनके विचारों की पुरजोर उपस्थिति ‘मील का पत्थर’ रही। इस ओजस्वी वक्ता की नज़र कपास के मूल्य से लेकर पंचायती राज तक हर जगह रही। कोई बुनियादी सवाल इनसे अछूता न रहा – चाहे वो सवाल देश का हो या राज्य का, महिलाओं पर अत्याचार का हो या बच्चों के भविष्य का, शिक्षा में सुधार का हो या भाषा के सम्मान का।

डॉ. रवि संसद में विशेष उल्लेख के जरिये लोकहित के अनगिनत मुद्दों पर जमी सरकार की उपेक्षा और मौन की परत हटाते रहे। जहां एक ओर मधेपुरा में ईख और जूट उद्योग की स्थापना, मधेपुरा जिला मुख्यालय में हवाई अड्डा का निर्माण, सहरसा-मधेपुरा-कटिहार रेल लाइन का आमान परिवर्तन जैसे स्थानीय मुद्दे उठाए, वहीं दूसरी ओर कोसी नदी पर बहुउद्देशीय बांध का निर्माण, बिहार में पर्यटक स्थलों का विकास, बिहार के लिए विशेष आर्थिक पैकेज जैसे व्यापक हित के मसलों पर सदन और सरकार का ध्यान आकृष्ट किया। बता दें कि संसद के दोनों सदनों में पटना को केन्द्रीय विश्वविद्यालय घोषित करने की मांग करने का श्रेय इन्हें ही प्राप्त है।

डॉ. रवि ‘राज’ और ‘नीति’ को आजीवन अपने साहित्य से संस्कार देते रहे। सृजन उनके लिए जीवन का पर्याय था। राजनैतिक एवं शैक्षणिक व्यस्तताओं के बावजूद इन्होंने सैकड़ों कविताएं, लेख, संस्मरण आदि लिखे। इनकी कुल 12 पुस्तकें – परिवाद (1977), आपातकाल क्यों? (1978), लोग बोलते हैं (1979), बातें तेरी कलम मेरी (1980), बढ़ने दो देश को (1987), छायावादी कविता का समाज-दर्शन (1992), ओ समय! (1994), मगर बंद है डगर (1995), कुछ तो कह दो (1996), जब सब कुछ नंगा हो रहा हो (1999), तीन वर्ष : तीन आयाम (2001) तथा बिहार मिथ एंड रियलिटी (2004) – प्रकाशित हैं। हमें गौरव होना चाहिए कि आज इनकी पुस्तकें भारत की लगभग तमाम प्रतिष्ठित पुस्तकालयों के साथ-साथ संसार के लगभग 110 देशों में मौजूद हैं।

डॉ. रवि ने सियासती जीवन में कभी संस्कारों से समझौता नहीं किया। पढ़ना और गढ़ना कभी रुका नहीं। दिशा और दृष्टि साफ रही हमेशा शीशे की तरह। नेतृत्व ही नहीं, नीति और नीयत भी देते रहे – मधेपुरा की एक नहीं, दो नहीं, पूरी तीन पीढ़ियों को। ‘व्यक्ति’ से ‘विशेषण’ हो चुके पापा को उनकी जयंती पर ह्रदय की सम्पूर्ण श्रद्धा और आस्था के साथ नमन।

*लेखक:डॉ. अमरदीप ,प्रदेश अध्यक्ष,जदयू शिक्षा प्रकोष्ठ, बिहार*