कार्तिक पूर्णिमा तक मनाया जाता है उत्सव, समापन आज
अररिया/डा. रूद्र किंकर वर्मा।
सामा-चकेवा का पर्व खासतौर पर मिथिलांचल और बिहार-झारखंड के क्षेत्रों में भाई-बहन के रिश्ते की गहराई को दर्शाता है। यह पर्व कार्तिक शुक्ल सप्तमी से शुरू होकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। इस दौरान महिलाएं सामा और चकेवा की मिट्टी की मूर्तियां बनाती हैं, जिन्हें रंग-बिरंगे रंगों से सजाया जाता है और फिर बांस की डलियों में रखकर गली-मोहल्लों में घुमाया जाता है। महिलाएं लोक गीत गाती हैं और अपने भाई की सलामती की प्रार्थना करती हैं। पर्व का समापन पूर्णिमा की रात को होता है, जब ये मूर्तियां नदी या जोतला खेत में विसर्जित की जाती हैं।
सामा-चकेवा की पौराणिक कथा
सामा-चकेवा पर्व एक पुरानी पौराणिक कथा से जुड़ा हुआ है, जिसमें सामा और चकेवा भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवती के संतान थे। सामा पर एक ने झूठा आरोप लगाया था, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने उसे पक्षी बनने का श्राप दे दिया। सामा के पति चक्रवाक ने भी स्वेच्छा से पक्षी रूप धारण किया और दोनों एक साथ भटकने लगे। अंत में, सामा के भाई चकेवा ने भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या की और उनकी कृपा से सामा को श्राप से मुक्ति मिली। यही कारण है कि यह पर्व भाई-बहन के रिश्ते के साथ-साथ भगवान की कृपा और परिवार के कर्तव्यों को भी याद करता है।
कहती हैं समाजसेविका कविता मिश्रा
समाजसेविका कविता मिश्रा ने इस पर्व के महत्व पर बात करते हुए कहा, “सामा-चकेवा केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि यह भाई-बहन के रिश्ते की सशक्त पहचान है। यह पर्व हमारे पर्यावरण, पशु-पक्षियों और पारंपरिक संस्कृति के प्रति सम्मान का संदेश भी देता है। मिथिला और बिहार-झारखंड के लोग इस पर्व को बड़े श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाते हैं। विशेष रूप से महिलाएं इस उत्सव में बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं और लोक गीत गाती हैं, जिससे भाई-बहन के रिश्ते की अहमियत समाज में और भी मजबूत होती है।”
उन्होंने आगे कहा, “यह पर्व हमें यह भी सिखाता है कि पारिवारिक रिश्ते जितने मजबूत होते हैं, समाज उतना ही सशक्त होता है। सामा-चकेवा का पर्व हमें एकता, प्यार और समझदारी की शिक्षा देता है, जो समाज को एक बेहतर दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।”
महिलाओं का उत्साह और पारंपरिक खेल
इस पर्व के दौरान महिलाएं सामा और चकेवा की मूर्तियों को बनाती हैं, जो बाद में रंग-बिरंगे सजाकर बांस की डलियों में रखी जाती हैं। महिलाएं गली-मोहल्लों में घूमते हुए गीत गाती हैं और अपने भाई की लंबी उम्र की कामना करती हैं। यह पर्व भाई-बहन के रिश्ते की मजबूत नींव को और भी सशक्त बनाता है।
पर्यावरण संरक्षण और भाई-बहन के रिश्ते का संदेश
सामा-चकेवा पर्व पर्यावरण के प्रति जागरूकता भी फैलाता है। विसर्जन के समय महिलाएं न केवल अपने भाई की सलामती की प्रार्थना करती हैं, बल्कि प्रकृति और पशु-पक्षियों के प्रति सम्मान का संदेश भी देती हैं। यह पर्व न केवल धार्मिक उत्सव है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।
विसर्जन के साथ पर्व का समापन
पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा की रात को होती है, जब सामा-चकेवा की मूर्तियों को नदी या जोतला खेत में विसर्जित किया जाता है। विसर्जन के दौरान महिलाएं सामूहिक रूप से गीत गाती हैं और भाई-बहन के रिश्ते की मजबूती की कामना करती हैं। यह पर्व न केवल एक सांस्कृतिक उत्सव है, बल्कि समाज में भाई-बहन के रिश्ते को सम्मान देने और पारिवारिक एकता को बढ़ावा देने का एक आदर्श अवसर भी बनता है।