धरी ना रह जाये फुटानी…

पूछ रहा सीमांचल: तो फिर अख्तरूल ईमान क्यों?

एमआईएम के उम्मीदवार के मैदान में रहते क्या किशनगंज में धर्मनिरपेक्ष मतों में बिखराव नहीं होगा?

इस चुनाव में किशनगंज सीट से मैदान छोड़कर भाग तो नहीं जाएंगे जनाब ईमान साहब

पटना/डा. रूद्र किंकर वर्मा।

सीमांचल में एआईएमआईएम के जनाधार को जो विस्तार मिला है और मिल रहा है वह पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख्तरूल ईमान की मेहनत का फल है या पार्टी सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी की रणनीतिक सफलता है? इस पर मतभिन्नता तो है, पर मतों के रूप में फायदा मिले या नहीं, मुस्लिम युवाओं में असदुद्दीन ओवैसी के प्रति गजब की दीवानगी दिख रही है।
सामान्य समझ में यही वह मुख्य कारण है कि मजबूत जनाधार वाले मुस्लिम बहुल किशनगंज संसदीय क्षेत्र में पूरा जोर लगाने के बाद भी पार्टी को कामयाबी नहीं मिल पा रही है. वैसे, इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेवारी संभाल रहे अख्तरूल ईमान संगठन की मजबूती के लिए सदैव सक्रिय रहते हैं,‌ परिश्रम भी खूब करते हैं. परन्तु, आम धारणा है कि अकड़ भरी उनकी कार्यशैली और अहंकार भरा व्यवहार अधिसंख्य कार्यकर्ताओं को अखड़ जाता है।

अख्तरूल ईमान के अखाड़े में डटे रहने से धर्मनिरपेक्ष मतों में होगा बिखराव

सीमांचल में एआईएमआईएम की चुनावी नीति की पूर्णिया और कटिहार संसदीय क्षेत्र के चुनाव मैदान से अलग रहने के एम आई एम के निर्णय के पीछे की राजनीति और रणनीति जो हो बदलाव के हिमायती असदुद्दीन ओवैसी समर्थकों में इससे गहरी निराशा समा गई है। इसके साथ गंभीर सवाल भी उठ रहा है! आशंका भी आकर ले रही है। सवाल यह खड़ा हो रहा है कि धर्मनिरपेक्ष मतों के बिखराव का लाभ राजग को नहीं उठाने देने के लिए पूर्णिया और कटिहार ने उम्मीदवार नहीं उतारने का निर्णय लिया गया। तो फिर किशनगंज को इसके दायरे से बाहर क्यों छोड़ दिया गया। एमआईएम के उम्मीदवार के मैदान में रहते क्या वहां धर्मनिरपेक्ष मतों में बिखराव नहीं होगा। उसका लाभ राजग को नहीं मिल जाएगा। गौर करने वाली बात है कि 2014 में किशनगंज से जदयू के उम्मीदवार रहे एमआईएम के बिहार प्रदेश अध्यक्ष विधायक अख्तरुल ईमान कुछ इसी तरह के हालात के बीच चुनाव से मैदान छोड़कर भाग गए थे। उसके मद्देनजर लोगों का मानना है कि, पूर्णिया और कटिहार की श्रेणी में किशनगंज को भी रखा जाना चाहिए था।

2014 की तरह मैदान छोड़कर भाग जाने की आशंका ले रही है बड़ा आकर

लोग चर्चा इस बात की भी करते हैं कि धर्मनिरपेक्षता को ताक पर रख 2019 के चुनाव में अख्तरुल ईमान खुद किशनगंज से उम्मीदवार बन गए।पर अन्य क्षेत्रों में एमआईएम को चुनाव से दूर रखा। इस दुरंगी नीति से पार्टी को वैचारिक नुकसान हुआ। इस बारगी उनके उम्मीदवारी में मजबूती कितनी रहेगी, फिलहाल नहीं कहा जा सकता। पर जदयू उम्मीदवार मास्टर मुजाहिद आलम के प्रति मतदाताओं में बढ़ रहे आकर्षण से अख्तरुल इमान के 2014 की तरह मैदान छोड़कर भाग जाने की आशंका बड़ा आकर ले रही है। यह स्थापित सत्य व तथ्य है, की राजनीति के वर्तमान दौड़ में बड़ी मुस्लिम आबादी वाले किशनगंज संसदीय क्षेत्र का सामाजिक समीकरण राजग के अनुकूल नहीं है। कांटे की त्रिकोणीय टक्कर में ही उसकी जीत हो सकती है। इस सच को समझते हुए अख्तरुल ईमान वहां के मैदान में कूद पड़ते हैं। सामान्य धारणा है कि किशनगंज के बहुसंख्स लोग कांग्रेस सांसद डॉक्टर जावेद आजाद के कार्यकलापों से संतुष्ट नहीं हैं। कथित तौर पर उनकी रईसी को लेकर उनमें रोष है। दोबारा उम्मीदवारी मिल जाने के बाद उनकी मुट्ठी नहीं खुल रही। बदलाव चाहने वालों की आस एमआईएम पार्टी की थी। पर सीमांचल में उम्मीदवारी की बावत उसकी ढुलमुल नीति ने अधिसंख्य समर्थकों को पेशों पेश में डाल रखा है। ऐसे में मतदाता जदयू उम्मीदवार मास्टर मुजाहिद आलम की ओर मुखातीत हो सकते हैं। मास्टर मुजाहिद आलम की दरिया दिल भी उन्हें आकर्षित कर रही है। इस बीच यह भी देखने को मिल रहा है कि कांग्रेस से जुड़े कई जन प्रतिनिधि और एमआईएम के पूर्व के कुछ रणनीतिकार भी जदयू के साथ हो गए हैं। उनकी पहचान वोट के ठेकेदार की रही है। विश्लेषकों के समझ है कि इस बार जदयू के पक्ष में इन सबका कर्तव्य दिखा तब कांग्रेस को भी नुकसान होगा ही।
बहरहाल जो हो सीमांचल की जनता को बखूबी मालूम है कि बुरा है भला है ,जैसा भी है अख्तरूल ईमान सरीखा बेबाक अल्पसंख्यक नेता सीमांचल क्या, संपूर्ण बिहार में दूसरा कोई नहीं है।