*संस्मरण*
लेखक संजय सोंधी उप सचिव भूमि एवं भवन विभाग दिल्ली सरकार
लगभग 14 साल पहले की बात है, जब मैं बिलासपुर के पास एक गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल में लेक्चरर था। जिंदगी में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, सिवाय इसके कि सरकार को हर साल हमें “इन-सर्विस ट्रेनिंग” के नाम पर तंग करने का शौक था। बस, उसी शौक के चलते मुझे पेंड्रा भेज दिया गया, बिलासपुर से करीब 110 किलोमीटर दूर, जहां डाइट (जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान) में पांच दिन की ट्रेनिंग थी। अरे, पांच दिन क्या, पांच जन्मों की सजा लग रही थी!
पेंड्रा, यार, वो जगह जो मरवाही डिवीजन में आती है। अब मरवाही का जंगल सुनने में तो बड़ा रोमांटिक लगता है, लेकिन वहां भालुओं की ऐसी भरमार है कि लगता है इंसान वहां मेहमान हैं और भालू मालिक! वहां भालू का शहर में घुस आना वैसा ही आम था, जैसे हमारे मोहल्ले में कुत्ते का भौंकना। कोई नई बात नहीं। लेकिन उस ट्रेनिंग के दौरान जो हुआ, वो तो मेरी जिंदगी का सबसे मसालेदार किस्सा बन गया।
तो हुआ यूं कि ट्रेनिंग का दूसरा या तीसरा दिन था। रात को हम सब डाइट के हॉस्टल में खर्राटे मार रहे थे। लेकिन एक भालू भाई, जो शायद जंगल के सबसे उत्साही प्राणी थे, ने सोचा, “क्यों ना आज रात कुछ स्पेशल किया जाए?” बस, वो रात के अंधेरे में एक पेड़ पर चढ़ गए और वहां मधुमक्खियों का छत्ता देखकर उनकी आत्मा तृप्त हो गई। भालू भाई ने छत्ते से शहद चूसना शुरू किया और ऐसा चूसना शुरू किया कि जैसे कोई फ्री का बुफे मिल गया हो। अब भालू को तो रात में पेड़ से उतरकर जंगल में वापस जाना था, लेकिन शहद का लालच ऐसा कि सुबह हो गई और वो वही पेड़ पर जमे रहे, शहद चटकारे ले-लेकर खाते हुए।
सुबह-सुबह कुछ स्थानीय लोग, जो शायद सुबह की सैर पर निकले थे, ने उस भालू को पेड़ पर देख लिया। अब हमारे देश में भीड़ का दिमाग तो आप जानते ही हैं। किसी ने कहा, “अरे, भालू है! इसे भगाओ!” और किसी जीनियस ने तुरंत सुझाव दिया, “चलो, टायर जलाते हैं!” बस, फिर क्या था? लोगों ने पेड़ के नीचे पुराने टायर और ट्यूब इकट्ठा किए और आग लगा दी। धुआं, बदबू, और हंगामा! बेचारा भालू, जो शहद के नशे में मस्त था, अब धुएं में फंस गया। नीचे आग, ऊपर शहद, और बीच में भालू भाई की फटी पड़ी थी।
अब किसी समझदार ने फॉरेस्ट डिपार्टमेंट को खबर कर दी। फॉरेस्ट वाले आए, बड़े साहब बनकर। रस्सियां, जाल, और न जाने क्या-क्या लेकर भालू को पेड़ से उतारा। अब उतारने के बाद भालू को सीधे बिलासपुर के पास कनन पेंडारी जू भेज दिया गया। हां, वही जू, जहां जानवरों को “सरकारी नौकरी” मिलती है! अब वो भालू भाई सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक पिंजरे में टहल-टहलकर अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं। शहद का लालच और वो एक रात की मौज ने उनकी आजादी छीन ली।
तो भैया, इस कहानी का सबक ये है कि लालच बुरी बला है। शहद के चक्कर में भालू की जिंदगी जू में गुजर रही है| मैं अच्छी तरह समझ गया कि लालच बहुत बुरी बला है, पेंड्रा की वो ट्रेनिंग? वो तो बस एक बहाना था, असली मसाला तो भालू भाई ने दिया!
(यह संस्मरण एक सच्ची घटना पर आधारित है)
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