समाज जागरण चौपाल: भारतीय समाज और समलैंगिकता कानून पर विशेष

समलैंगिकता में वैवाहिक मान्यता को लेकर आजकल देश में चर्चा जोरो पर है। समलैंगिकता प्राकृतिक नियम के साथ या नियम के खिलाफ यह सवाल भी आम जनमानस के मन मे है। सबसे अहम बात भारत में जिस प्रकार के ताने बाने और सामाजिक परंपरा है क्या उस परिपेक्ष्य में समलैंगिकता को उचित ठहराया जा सकता है ? मामला अभी कोर्ट में है और केन्द्र सरकार अपना पक्ष रख रही है। लेकिन आम जनमानस के मन में ऐसे ही कई सवाल उठ रहे है। ऐसे ही कई सवालों का जवाब जानने के लिए समाज जागरण के टीम देश भर मे शासन, प्रशासन, शिक्षाविद् और आम जनमानस का चौपाल लगाकर जानना चाहा है कि आखिर उनकी क्या राय है :-

-विजय कुमार सिंह, वरीय समाजसेवी एवं शिक्षाविद्

हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी कानून का निर्माण राष्ट्र के धर्म और अध्यात्म, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से इतर नहीं हो सकता है। समलैंगिकता हमारे मूल्य मान्यताओं के विरुद्ध है। इसका निर्णय केवल संवैधानिक व्याख्या से नहीं हो सकता।


मुझे ऐसा लगता है कि संसदीय स्वीकृति के बगैर इसे पूरे देश पर आरोपित किया जाना उचित नहीं। नितांत भौतिकता पर आधारित कानून को हमारे मूल्य और मान्यताएं इजाजत नहीं देते । जो हमारी मर्यादा की वर्जनाओं के विरुद्ध है उसकी स्वीकृति से सुप्रीम कोर्ट को भी बचना चाहिए। इसकी कानूनी स्वीकृति से समाज में सामाजिक और नैतिक अराजकता फैल सकती है। -विजय कुमार सिंह, वरीय समाजसेवी एवं शिक्षाविद्

देवरत्न प्रसाद
सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता!

भारतीय समाज…. सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह करने वाला समाज है…. जिस समाज में समलैंगिकता का कोई स्थान नहीं है! प्राकृतिक तौर पर भी समलैंगिकता एक विपरीत संबंध और विचार है!
जिसका स्थान भारतीय समाज मैं स्वीकार्य नहीं हैं!

मेरे समझ में समलैंगिकता एक वैचारिक विकृति तथा मानसिक कमजोरी हैं!
समलैंगिकता समाज के हित में नहीं है तथा कहीं से भी उचित नहीं! हमें समलैंगिकता का सामाजिक और वैचारिक स्तर पर व्यवहारिक तरीके से विरोध करना चाहिए!
देवरत्न प्रसाद
सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता!

अनिल रश्मि
लेखक, संयोजक,
स्वरांजलि, पटना सिटी

समलैंगिकता
भारतीय समाज की दशा और दिशा में सदैव कुछ ना कुछ परिवर्तन होते रहे हैं l मानव हृदय प्रकृति के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता l इसलिए मानसिक परिवर्तन के लक्षण नए
नए रूप में दिखाई पड़ते हैं l जीवन जीने की शैली स्वतंत्र होनी चाहिए I मन के आंगन पर पहरा होना… मानव की आजादी पर कुठारघात है , जो कहीं से औचित्यपूर्ण नहीं है I समलैंगिकता पर जो इतना शोर मचाया जा रहा है वो गलत है I किन्नर समाज में समलैंगिकता का प्रचलन बहुत पहले से है, अगर आम इंसान इसे अपनाना या शादी करना चाहता है तो उसे प्रोत्साहन देना चाहिए…. समाज की मुख्य धारा लिव ईन रिलेशन को मान्यता धीरे – धीरे मिल रही है तो समलैंगिकता के प्रश्न पर समाज पर कौन सा आफत पर जाएगा I मैं इसका समर्थन करता हूँ I अनिल रश्मि लेखक, संयोजक, स्वरांजलि, पटना सिटी

अनील कुमार,पूर्व व्याख्याता,संवाददाता दैनिक समाज जागरण,नबीनगर(औरंगाबाद)

समलैंगिगता की धरना भारतीय समाज में कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है।यह एक सामाजिक बुराई साथ ही इस सोच की धरना वाले व्यक्ति को हमारा समाज मानसिक तौर पर विकृत एवम विक्षिप्त समझता है।बहुत से धर्म समलैंगिगता को पाप मानते है जिनमें इस्लाम,यहूदी और ईसाई भी है।

2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिगता को कानूनी रूप दे दिया था लेकिन 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को रद्द कर दिया। मेरी दृष्टिकोण से इसे कानूनी रूप देने में संसद और सर्वोच्च न्यायालय को भी संयम बरतना चाहिए।

 
संतोष मेहता
पूर्व उपमहापौर
पटना

समलैंगिकता
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समलैंगिकता केवल एक गुप्त इच्छा की अभिव्यक्ति है, इस्लाम और ईसाई धर्म जैसे प्रमुख धर्म समलैंगिकता को स्पष्ट रूप से पाप मानते हैं जहां तक भारतीय समाज की बात है तो भारतीय संस्कृति विवाह प्रणाली वंश वृद्धि और पारंपरिक मूल्यों की निरंतरता का समर्थन करती है ।

भारतीय समाज के लिए समलैंगिकता आज भी एक सामाजिक वर्जना है उनकी दृष्टि में या एक पश्चिमी अवधारणा है भारतीय समाज के विवाह को तभी सामान्यता दी जा सकती है जब बच्चा पैदा करने में सक्षम जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच विवाह हुआ हो । संतोष मेहता पूर्व उपमहापौर पटना

लीलाधर जी सामाजिक कार्यकर्ता उपाध्यक्ष, बिहार प्रदेश संपूर्ण वैश्य समाज

भारतीय,सनातन संस्कृति को भारतीयता को समाप्त करने का एक पश्चिमी और वामपंथी मानसिकता वाले लोगो का एक सुनियोजित साजिश है एक सभ्य समाज अप्राकृतिक यौनाचार का कभी समर्थन नहीं कर सकता है

लीलाधर जी सामाजिक कार्यकर्ता उपाध्यक्ष, बिहार प्रदेश संपूर्ण वैश्य समाज

समलैंगिकता: सामाजिक नैतिकता बनाम संवैधानिक सर्वोच्चता ।
समलैंगिकता को लेकर भारतीय समाज के नजरिये की बात करें तो, ज्यादातर समाज में यह नकारात्मक सोच को बढ़ावा ही है।
हालाँकि, इसके पीछे बहुत तार्किक-वैज्ञानिक आधार नहीं दिया गया है। यही कारण है कि यह बहुसंख्यक आचार-विचार का अहंकार मात्र लगता है। लेकिन, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि ऐसे लोगों की उपस्थिति समाज में हमेशा से ही रही है।अगर समलैंगिकता को लेकर भारतीय समाज के नजरिये की बात

दैनिक समाज जागरण,
धनंजय कुमार वैद्य ,
ब्यूरो चीफ ~ बिहार, झारखंड ( प्रदेश)

करें तो, ज्यादातर यह निगेटिव ही रहा है। हालाँकि, इसके पीछे बहुत तार्किक-वैज्ञानिक आधार नहीं दिया गया है। यही कारण है कि यह बहुसंख्यक आचार-विचार का अहंकार मात्र लगता है। लेकिन, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि ऐसे लोगों की उपस्थिति समाज में हमेशा से ही रही है।माना जा रहा है कि यह फैसला संविधान की आत्मा, चेतना, धड़कनों का विस्तार करते हुए समाज को समावेशी बनाने की व्याख्या प्रस्तुत करता है। हालाँकि, इसमें व्यक्ति की निजता, उसकी शख्सियत, उसकी पसंद, उसके यौन संबंध, प्रेम-संबंध, उसकी सोच, उसके अहसास, उसके हमसफ़र, चयन के अधिकार आदि की शानदार व्याख्या हुई है। लेकिन अफ़सोस यह कि 6 सितंबर 2018 से शुरू हुई भारतीय समाज की इस विकास यात्रा में सरकार का अपना कोई रुख जाहिर नहीं हुआ।

दैनिक समाज जागरण, धनंजय कुमार वैद्य , ब्यूरो चीफ ~ बिहार, झारखंड ( प्रदेश)