महफिले कालीन के रूप में विश्व विख्यात कलीम उद्योग ने जगाई उम्मीद की किरण

महफिले कालीन का कालीन कभी राष्ट्रपति भवन की बढ़ती थी शोभा। सत्य प्रकाश नारायण सहायक विधि संवाददाता धनंजय कुमार विधि संवाददाता बिहार झारखंड प्रदेश 1970 के दशक में इस उद्योग की चर्चा देश भर में ही नहीं विदेशों में भी होती थी। ओबरा निवासी बुनकर मोहम्मद अली को 1972 में राष्ट्रपति पुरस्कार से भी नवाजा गया था। इस कालीन के आर्डर यहां देश से ही नहीं विदेशों से भी आते थे। लॉकडाउन के समय केंद्र सरकार की उदासीनता के कारण सूक्ष्म लघु उद्योग के तहत उद्योग को संचालित किया जा रहा था। 1980 के दशक में महफिले कालीन के रूप में सरकारी उदासीनता के कारण यह उद्योग मृत प्राय हो गया था । इससे यहां काम करने वाले कारीगरों के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई थी । लोग कमाने के लिए बाहर भागने लगे एक समय था। जब ओबरा प्रखंड के कई गांव के लोग इस उद्योग से जुड़े थे।लेकिन डिमांड कम होने से आज इसका अस्तित्व समाप्ति के कांगड़ा पर है। इस विषम परिस्थिति में नबीनगर के रहने वाले शत्रुघ्न कुमार के नेतृत्व में यह काम फीर से शुरू हो गया है और जो मजदूर दूसरे प्रदेश में जाकर कम कर रहे थे वे घर के पास फिर से कम मिलने लगा लिहाजा वे लोग इससे जुड़ने लगे हैं इस प्रकार इसे पुनर्जीवित कर बुनकरों को ढूंढ कर उन्हें रोजगार दिया जा रहा था। ताकि महफिले कालीन को फिर से बुलंदी के वह शिखर तक पहुंचा जा सके और औरंगाबाद जिले का नाम रोशन किया जा सके यह कभी राष्ट्रपति भवन का रौनक बढ़ता था ओबरा का कालीन का आर्डर विदेश से भी आता था ।उस समय 76 लूम लो की मशीन यहां पर काम करती थी ।इस पर अगर केंद्र सरकार और बिहार सरकार के द्वारा ध्यान दिया जाए तो यहां से बुनकरों की बेरोजगारी की समस्या बहुत हद तक दूर की जा सकती है।